उदासीन आचार्य भगवान श्री श्रीचंद्र जी की 526 वी जयंती मनाई गई-भीलवाड़ा

उदासीन आचार्य भगवान श्री श्रीचंद्र जी की 526 वी जयंती मनाई गई

भीलवाड़ा-(मूलचन्द पेसवानी)

भीलवाड़ा। हरी शेवा उदासीन आश्रम में जगतगुरु उदासीनाचार्य श्री श्रीचंद्र जी की 526वी जयंती हर्षोल्लास, उमंग एवं उत्साह के साथ मनाई गई। आश्रम में इस वर्ष कोरोना के चलते आमजन एवं श्रद्धालुओं हेतु प्रवेश वर्जित रहा। महामंडलेश्वर स्वामी हंसराम उदासीन ने बताया कि जगद्गुरु श्री चंद्र जी का प्राकट्य दिवस प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला नवमी को श्री चंद्र नवमी के रूप में संपूर्ण विश्व में संतों महापुरुषों का अनुयायियों द्वारा मनाया जाता है। सर्वप्रथम आश्रम में विराजित श्री गणेश जी का पूजन हुआ। उदासीन पंथ के प्रणेता उदासीनचार्य भगवान श्री श्रीचंद्र जी की मूर्ति का अभिषेक किया गया, जिसमें संत मया राम संत राजाराम संत गोविंद राम ने भाग लिया। पंडित सत्यनारायण शर्मा द्वारा वैदिक मंत्रोच्चारण किया गया। सायंकाल में भगवान श्री श्रीचंद्र जी की स्तुति एवं सत्संग कीर्तन किया गया। महामंडलेश्वर स्वामी हंसराम उदासीन ने कहा कि गुरु अविनाशी मुनि ने श्री श्रीचंद्र जी महाराज को उदासीन संप्रदाय की दीक्षा देते हुए धर्म संस्कृति और राष्ट्र के उद्धार की प्ररेणा दी। वह सदैव हर सुख दुख को समान भाव से देखते हुए उसमें उदासीन भाव रखते थे। उन्होंने धर्म की रक्षा एवं धर्मांतरण को रोकने हेतु अनेक कार्य किए। श्री श्रीचंद्र जी भगवान के जन्म से जटाए एवं जन्म से ही दाहिने कान में मांस कुंडल होने से शिव स्वरूप थे तथा वे कई रिद्धि सिद्धियों के अवतार थे‌। उन्होंने अनेक चमत्कारों का वर्णन किया। श्री मात्रा साहिब का पाठ वाचन हुआ। श्री श्रीचंद्र सिद्धांत सागर ग्रंथ पर सभी ने शीश नवाया। आरती प्रार्थना के पश्चात रोट प्रसाद का भोग लगा प्रसाद वितरण हुआ। इस अवसर पर ट्रस्ट के पदाधिकारी सचिव हेमंत वच्छानी कन्हैयालाल मोरियानी देवीदास गेहानी गोपाल नानकानी व लक्ष्मी नारायण खटवानी उपस्थित रहे।

संत मयाराम ने बताया कि परम तपस्वी उदासीनाचार्य भगवान श्री श्रीचंद्र जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल नवमी संवत 1551 में तलवंडी ननकाना साहिब में हुआ। आपकी माता का नाम सुलक्षणा देवी एवं पिता का नाम श्री गुरुनानक देव उदासी था। भगवान श्री श्रीचंद्र जी वन के एकांत में समाधि लगा कर बैठ जाते थे। उन्होंने देश-विदेश में विभिन्न स्थानों पर हिंदू सनातन धर्म का प्रचार प्रसार एवं रक्षा हेतु कार्य किए। चित्तौड़गढ़ राजस्थान के महाराणा प्रताप को सन् 1576 में भगवान श्री श्रीचंद्र जी का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 149 वर्ष की आयु में रावी नदी के किनारे शिला पर सवार होकर कैलाश की ओर लुप्त हो गए। देश-विदेश में 2000 से अधिक उदासीन आश्रम है एवं 400 से अधिक सिंधी साधु समाज के आश्रम है जो अनवरत समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

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